तुम्हे अपना बनाने चले थे

हम भी कितने नादान हैं,
कुछ ख्वाब सजाने चले थे,
लहरों को अनदेखा कर,
रेत पर घर बनाने चले थे,

एक हँसते मुस्कुराते साये को अपना समझ कर,
उससे अपनी खुशियाँ पाने चले थे,
दो पल के साथ का लेकर सहारा,
पूरा जीवन बिताने चले थे,

चाँद की रोशनी हम पे पड़ी तो,
समझ बैठे चाँद को ही अपना,
उसका बढ़ना घटना जो देखा निसदिन,
खुद को उसका कारण समझने चले थे,

ना कभी ईबादत की,
न कुछ मांगने का तरीका आया,
रब को खुद पे मेहरबान समझ के,
हम तुम्हे उससे मांगने चले थे,

उस रब से भी शिकायत है हमे,
दिल दिया तो थोड़ी सी अक्ल भी दे देता,
खुद जिसके काबिल नहीं हम,
हम उसी को अपनाने चले थे,

ख्वाब देखने का हक है,
और ख्वाब देखने की ही औकात भर,
ख्वाबों में भी जो न हुआ अपना,
उसे जिंदगी में अपना बनाने चले थे,

प्यार का गीत गुनगुनाने चले थे,
मन ही मन मुस्कुराने चले थे,
तुमको पाने चले थे,
खुद को गँवाने चले थे,

एक बच्चे की तरह जिद्द दिखाने चले थे,
पानी में उतरे चाँद को सबसे छुपाने चले थे,
तुम्हारी बातों को समझे बिना, ख़ामोशी को समझने चले थे,
फिर बिना किसी गल्ती के तुम्हे कसूरवार ठहराने चले थे,

तुम मासूमियत में खामोश रहे हर दम,
तुम्हारी ख़ामोशी को तुम्हारी हाँ बनाने चले थे

‘आपकामित्र’ गुरनाम सिंह सोढी
१ जुलाई, २०१२

6 thoughts on “तुम्हे अपना बनाने चले थे

  1. jijivisha says:

    bahut khoobh.. bahut khoobsurat!

  2. मन की अनुभूतियों को सुन्दर शब्दों मे संजोया। शुभकामनायें।

  3. आप दोनों का धन्यवाद 🙂

  4. सदा says:

    वाह … बेहतरीन

  5. Bahut pyari kavita

  6. आप सब का बहुत बहुत धन्यवाद 🙂

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